सल...


सल...

जग भासते विराणे
जणू एकाला उभा मी
सखी एकलेपणाचे
कसे दुःख भोगतो मी !

हि भयाण रात्र सारी,
जागून काढतो मी,
स्मृती जागल्या प्रीतीच्या त्या,
हलकेच झेलतो मी,
           सखी एकलेपणाचे
           कसे दुःख भोगतो मी !          
त्या प्रीतीच्या घेतल्या शपथा
कधी कढीला राग रुसवा
किती आठवावे बहाणे तुझे ते
शब्दांत गुंफतो मी,
           सखी एकलेपणाचे
           कसे दुःख भोगतो मी !          
तव सहवासावीण
काय अर्थ या जगण्याला,
तव अबोल पणाचे
गूढ शोधितो मी,
           सखी एकलेपणाचे
           कसे दुःख भोगतो मी !          
भंगले स्वप्न माझे,
रुसली पण धरा ही
रुसली पण "प्रीत" माझी,
मज सावरू कसा मी,
           सखी एकलेपणाचे
           कसे दुःख भोगतो मी !          
राहून वाटते हे,
काय चुकले असेल माझे?
मम प्रीतीच्या फुलाचे,
का बंध तोडले मी,
           सखी एकलेपणाचे
           कसे दुःख भोगतो मी !          

श्री. प्रकाश साळवी दि. ०३ एप्रिल २०१४.

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